मटेरिअलिस्म के दुष्प्रभाव आज सोसाइटी के लिए सबसे बड़ा खतरा बन के उभरे हैं| कंसुमेरिस्म की अंधी दौड़ जहाँ इंसान के ऊपर दबाव बनती है वहीं यह परिवार मे फ्रिक्शन का कारण भी बन चुके हैं| जरूरतों और ख्वाइशों की अंतहीन खाई को पार करते इंसान न सिर्फ मतलबी बन गया है बल्कि क्रूरता की हर सीमा को बेझिझक तर्क-कुतर्कों के सहारे पार कर रहा है | संसाधनों को एकत्र करने की होड़ मे इंसान ने नैतिक मूल्यों से समझौता करलिया है| आज इंसान हर चीज़ को हड़पने को हमेशा ततपर है | जंगलों की अंधादुंध कटाई हो या समुद्री जीवों का लुप्त होना मनुष्य के लालच का उद्धरण हैं | परिवारों के बीच बढ़ता संघर्ष भी इसी मानसिक दिवालियापन का सबूत है| बचपन से हमें तेरा-मेरा और एक दूसरे मे फर्क करना सिखाया जाता है, जो नीव डालती है स्वार्थी अथवा आत्म केन्द्रित होने की | अचेतन मन में जो धारणाये हैं उनके द्वारा हम आस पास के वातावरण को भी प्रभावित करते हैं।
खुद को श्रेष्ट व अन्य को कमतर आंकना इसी संकीर्ण र्सोच का लक्षण है| बड़े पैमाने पर देखें तो विभिन धर्मो का अथवा देशो के बीच का संघर्ष खुद को श्रेष्ट अथवा स्वयं के लिए अत्यधिक सुखसुविधायं एकत्र करने की स्पर्धा ही तो है | दक्षिण चीन समुद्र का बढ़ता संघर्ष हो, या अरेबियन पेनिनसुला की मारकाट यह भूमि, खनिजों या फिर वर्चस्व की लड़ाई ही है | दोनों विश्व युद्ध, गल्फ वॉर अथवा अनगिनत युद्धों का मूल कारन यही अतृप्य भूख थी जिसका परिणाम दर्दनाक व भयावा था और सम्पूर्ण मानव जाती ने इसका मूल चुकाया | इतिहास साक्षी है कीअत्यधिक मेहत्याकांशा न सिर्फ लोभी बना देती है अपितू इर्षा या दूसरों से घृण्डा भी सिखाती है | दक्षिण चीन सागर में होने वाली लड़ाई चीन द्वारा वियतनाम और फिलीपींस जैसे छोटे देशों को दबाने के लिए है और खनिजों पर आधिपत्य स्थापित करने की लड़ाई है चाहे इसके लिए युद्ध हो तो इससे चीन को गुरेज़ नहीं |
अंतरिक्ष की खोज भी इंसान का अंतहीन लालच एवं खुद को श्रेष्ठ साबित करने की स्पर्धा दर्शाता है | विभिन्न देशों के अंतरिक्ष कार्यक्रमों में एक दूसरे से होड़ का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि यदि वहां से खनिज मिलते हैं तो उन्हें हासिल करना। ये खनिज उनके होंगे जो पहले पहुँचेगा। महत्वपूर्ण बात यह है की ताकतवर व प्रभावशाली देशों द्वारा गरीब देशों को नैतिकता का पाठ सिखाना जबकि खुद उन्ही मूल्यों की अवहेलना करना भी इसी श्रृंखला का हिस्सा है | हाल ही में अफ्रीकी देशों द्वारा जंगली जानवरों के संरक्षण हेतु सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियों को ख़ारिज करने की चेतावनी इसी शोषण की तरफ दर्शाता है | गरीब देश नैतिकता का बोझ अपने कंधों पर कब तक ढोये और क्यों ढोये ? जबकि अमीर देशों को कोई फर्क नही पड़ता। क्या हमारे विकसित देशों की कोई जिमेदारी नही बनती ? ये देश पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे क्यों नहीं आते? क्या पर्यावरण की रक्षा सिर्फ गरीब राष्ट्रों का कर्तव्य है?
बाल्यावस्था से मस्तिष्क मे डालीं गयी बातें न सिर्फ हमे प्रभावित करती हैं बल्कि हमारा आचरण भी तय करती हैं | यही संकीर्ण सोच अचेतन मन के द्वारा हम अपने आस पास के वातावरण में फैलाते है। वो बढ़ते बढ़ते हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को बर्बाद कर देती है औऱ हम अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं ।
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