श्रीरामचरित मानस के सौवें दोहे में गणेश जी के बारे में महत्वपूर्ण सूत्र उपलब्ध है। दोहा है-
मुनि अनुसासन गणपतिहि पूजेउ संभु भवानि ।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जिय जानि ।।
अर्थात -
मुनियों की आज्ञा से शिव पार्वती ने विवाह पूर्व गणेश जी का पूजन किया। देवता अनादि हैं अतः कोई इस पर संशय न करे कि गणेश जी तो शिव के पुत्र हैं, तब वह उनके विवाह में कैसे उपस्थित हैं , कि पूजे गए ? इसी में गणेश का प्रतीक निहित है। इसलिए कि गण का अर्थ समूह है । देवमंडल में अष्ट वसु , एकादश रुद्र, 49 मरुत गण देवता हैं जो समूह में पूजे जाते हैं |इस अर्थ में गणेश समूह या समूहों के प्रमुख व्यक्ति का पद है। प्राचीन गणराज्यों में इसीलिए गणपति होते थे। शिव के साथ गणेश एक पृथक देवता भी हैं लेकिन व्यापक अर्थ में वे अनादि होकर हर काल और समाज में सर्वदा मौजूद हैं । शिव के विवाह के समय निश्चित ही तत्कालीन समाज में जो 'गणेश' रहे होंगें, स्वभावतः कार्य की सफलता के लिए उनकी पूजा की गई।
परिवार
गणेश जी क्यों मंगलमूर्ति हैं , इसका सार उनके परिवार में है।
महादेव उनके पिता हैं। जगतजननी पार्वती जैसी महिमामय नारी उनकी माँ हैं। बड़े भाई कार्तिकेय देवसेना के प्रमुख हैं। ऐश्वर्य की प्रतीक रिद्धि और सामर्थ्य की प्रतीक सिद्धि उनकी पत्नियां हैं। उनके दो पुत्रों में लाभ और क्षेम है। एक अप्राप्य की प्राप्ति कराता है। और दूसरा प्राप्य की रक्षा करता है। आशय है परिवार का प्रत्येक सदस्य लोक कल्याण में संलग्न है और प्रतीक है कि जिस परिवार में सभी अपने अपने कार्य में रत होकर सबका मंगल करने के लिए संकल्पित रहते हों , उसमें उसी प्रकार सुख , शांति और आनंद बरसता है जिस प्रकार गणेश जी के परिवार में।
आंनद के जन्मदाता श्रद्धा व विश्वास
रामचरितमानस में 'भवानीशंकरों वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणों' कहकर शिव-पार्वती की वंदना की गई है।
अर्थात -
माता श्रद्धा और पिता विश्वास के प्रतीक हैं। हर काम की सफलता के लिए श्रद्धा और विश्वास दोनों आवश्यक हैं । जहाँ ये दोनों हो, वहीं आनंद संभव है। गणेश जी इसीलिए मंगलमूर्ति और आनंद के दाता हैं क्योंकि उनका जन्म श्रद्धा और विश्वास से हुआ है। जिसके मूल में ये दोनों हो वह मोद यानी आनंद को पसंद करने वाला भी होगा और आनंद का प्रदाता भी होगा। ठीक उसी भांति जैसे गणेश जी हैं।
जीवन में सार और विस्तार
गणेश के जीवन से जुड़ी बहुमत कथा है।
कथा अनुसार जब पृथ्वी की परिक्रमा को लेकर बड़े भाई कार्तिकेय से प्रतिस्पर्धा हुई तब विद्यावान, गुणी, अति चतुर गणेश जी ने माता पिता की परिक्रमा करके जय प्राप्त की और शिवजी के वरदान से प्रथमपूज्य बने। इसका प्रतीक है कि जीवन को विस्तार को जानने के बजाय उसके सार को जानना अधिक महत्वपूर्ण है। हम सब सदा कार्तिकेय की तरह परिक्रमा करने निकल पड़ते हैं। यानी विस्तार में जानने के चक्कर में पिछड़ जाते हैं। मगर जो गणेशजी की तरह भावुक और बुद्धिमान होता है वह सार पर टिकता है। जो माता पिता को ही महत्व देता है वही हर जगह सबसे पहले पूजा जाता है।
जन गण मन गणनायक जय हो
गणेशजी जन जन के मन में रहते हैं और गण या गणों के नायक हैं।
इस अर्थ में वे समूह, सामूहिकता और समूह शक्ति के प्रतीक हैं। वे समर्थ हैं क्योंकि उनके पास समूह या समूहों के जन - मन की मिली जुली ताकत है । जो सिखाती है कि जो समाज समूहशक्ति में विश्वास करता है, जो अपने नायक में निष्ठा रखता है, वह हर प्रकार के विघ्नों का नाश करके सर्वत्र मंगल की स्थापना में समर्थ हो जाता है। स्वाभाविक है गण शक्ति से परिपूर्ण नायक विशिष्ट अर्थात विनायक होता है ।
Source - Faridabad Bhaskar
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